Saturday, April 30, 2022

Paltu Khargosh

किस दिन, किस पल,
बराबर याद नही ।
पर कुछ चार साल पहले,
एक पालतू खरगोश पाला था ।
डरा सा, सहमा सा,
कपकपाता कमरे के कोने में पाया था ।

ना उसके लबों पर बोल थे,
ना उसके नन्हे पैरो में दम ।
बस उसकी आँखें  पुख्ता थी,
रात भर उसे चमची से पानी पिलाया था ।
उसी रात अनजाने में,
एक पालतू खरगोश पाला था ।

सुबह उठा देखा हर तरफ,
वह खरगोश कहीं जा चुका था ।
शायद माँ से बिछड़ा होगा,
दिन भर की थकान मिटाने मेरे घर आया था ।
लौट गया अपने परिवार को,
खुद को यही समझाया था ।

यूँ ही कई रोज़ बीत गए,
एक रात कुछ तनाव सा था ।
ज़ुबान सूख कर तालवे से चिपक रही थी,
दिल किसी अनदेखे बोझ से नीचे दबा जा रहा था ।
उस रात जब पहुँचा कमरे में,
वह खरगोश को लौटा खड़ा पाया था ।

कुछ तो राज़ था इस पल में,
जाने क्यों वह इसी रात यहाँ था ।
उसे देख बहुत खुशी सी हुई,
जैसे एक बिछड़ा दोस्त घर आया था ।
पर पिछले बार से लगभग दुगना बड़ा,
खरगोश अब मासूम नही, खूंखार नज़र आ रहा था ।

अब उसे चमची की जरूरत नही थी,
वह बोतल कुतर कुतर के पानी पिए जा रहा था ।
मेरे कमरे पर वह पूरी तरह कब्ज़ा कर,
हर कोने में अपनी गंदगी फैला रहा था ।
उस खरगोश को शायद मैंने नही,
उस खरगोश ने मुझे अनजाने में पाला था ।

मेरे कमरे के दरवाज़े पर संत्री बन कर,
मुझे बाहर निकलने से रोके जा रहा था ।
कभी धोखा देकर जो निकल जाता छुपके से,
चैन की सांस बिना किसी मुश्किल ले पाता था ।
फिर जैसे ही लग जाता अपने रोज़ के कामों में,
तब अकस्मात उस खरगोश को अपने सामने खड़ा पाता था ।

उस खरगोश के देह की सफेदी काली पड़ने लगी थी,
उसका चेहरा उसके दातों के लिए छोटा पड़ने लगा था ।
वह पूरे दिन मेरे साथ घूमता ही,
अब रातों को सपना में भी डराने लगा था ।
अब पूरा यकीन हो चुका था,
उस खरगोश ने ही मुझे पाल रखा था ।

कोई और जो देख पाता उसे,
तो मदद लेकर पिंजरे में बंद कर सकता था ।
किसी से जो बात करू तो एक टक मुझे घूरे,
अकेले रहने के खयाल से भी डर लगने लगा था ।
कैसे पीछा छुड़ाएं अपने इस मनहूस साए से,
हर वक्त सिर्फ यही सोचने लगा था ।

बाहर सूरज कितना ही तेज चमका दे,
मेरे चारों ओर मेघले बादलों का घनघोर अंधेरा था ।
वह खरगोश ने मेरी भूख मार दी, और
मुझे अंदर से खा कर खुद का पेट भर रहा था ।
अब वह मेरे कमरे में नही,
मेरे अंदर ही पल रहा; बड़ा हो रहा था ।

घुटन महसूस होती है बंद कमरे के भीतर,
मेरा तो शरीर ही एक बंद कमरा बन चुका था ।
घंटो घंटो तक रुके बिन हर रोज़ रोया,
पर एक आंसू का कतरा तक आंखों से ना निकल पाया ।
जब उम्मीद की आखरी डोर तक छूट रही थी,
तो "भोर से पहले सबसे अंधेरा होता है" याद आ रहा था ।

फिर जुटा के हिम्मत बहुत, बताया दोस्त यारों को,
मदद चाहिए मुझे, जीना यूं बहुत मुश्किल हो रहा था ।
कुछ समझ ना सके मेरी बातों को, मज़ाक में उड़ा दिया,
बस एक ने थामा हाथ, और गले से लगा लिया ।
वह खरगोश बिलकुल हैरान, मेरे अंदर गोते लगाने लगा,
छटपटा कर, दुम छुपाकर, उल्टी दिशा में भागे जा रहा था ।

शुरू हुआ फिर अपने आप को, खुद में ढूंढने का सिलसिला,
खरगोश जा चुका था, अब उसका नामोनिशान मिटाना था ।
आंखे मीचे, सांसें खींचे, खुद से बातें करने लगा,
प्यार से जब किसी ने फेरा हाथ, तो पहाड़ राई बनने लगा ।
ऊपर वाला ही देता है दिव्य - रिद्धि,
बस हाथ थामने के लिए किसी का साथ जरूरी था ।

किस दिन, किस पल,
बराबर याद नहीं ।
पर कुछ चार साल पहले,
जो पालतू खरगोश पाला था ।
हिम्मत से और अपनो के साथ से,
उसे आज हमेशा के लिए निकाल भगाया था ।।

~सौरव गोयल


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