इस मैदान में खेला करते थे,
हम सब गेंद और बल्ले से ।
आज यहाँ पर खेला गया,
जाने कितनों के बचपन से ॥
सुनाई पड़ती थी यहाँ दिन भर,
वह पाठ याद करने की कोशिशें ।
आज यहाँ एक अजीब सन्नाटा है,
इन दीवारों ने सोख ली सब चीखें ॥
रँग-भरे हाथों से,
हम बनाते थे यहाँ तस्वीरें ।
हमारे लहू के रँग से,
इन्होने लिखी आज की ताज़ा खबरें ॥
जिन्हे अच्छे-बुरे की पहचान तक नहीं,
उन्हें अपने बंदूकों का निशाना बनाया ।
कितना गर्व महसूस हुआ होगा,
जब बच्चों की लाशों पर आतंक का ध्वज लहराया ॥
क्या कहोगे अपने खुदा को जाकर,
"तेरे लिए बेगुनाहों को मारा है"?
किस जन्नत की ख्वाब लिए फिर रहे हो?
तुम्हारे लिए उसने जहन्नुम तक नहीं बनाया है ॥
~ सौरव गोयल
first and last para...!! superb writing!!
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