Tuesday, December 23, 2014

Peshawar


इस मैदान में खेला करते थे,
हम सब गेंद और बल्ले से । 
आज यहाँ पर खेला गया,
जाने कितनों के बचपन से ॥ 

सुनाई पड़ती थी यहाँ दिन भर,
वह पाठ याद करने की कोशिशें । 
आज यहाँ एक अजीब सन्नाटा है,
इन दीवारों ने सोख ली सब चीखें ॥ 

रँग-भरे हाथों से,
हम बनाते थे यहाँ तस्वीरें । 
हमारे लहू के रँग से,
इन्होने लिखी आज की ताज़ा खबरें ॥ 

जिन्हे अच्छे-बुरे की पहचान तक नहीं,
उन्हें अपने बंदूकों का निशाना बनाया । 
कितना गर्व महसूस हुआ होगा,
जब बच्चों की लाशों पर आतंक का ध्वज लहराया ॥ 

क्या कहोगे अपने खुदा को जाकर,
"तेरे लिए बेगुनाहों को मारा है"?
किस जन्नत की ख्वाब लिए फिर रहे हो?
तुम्हारे लिए उसने जहन्नुम तक नहीं बनाया है ॥ 


~ सौरव गोयल 

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