Friday, April 13, 2018

Daldal - A mental anguish

जाने कैसा दलदल है यह
जिसमे मैं धसा जा रहा हूँ
जितना छटपटाता हूँ मैं
उतना इससे घिरा जा रहा हूँ
देह मेरा बाहर  है इसके
फिर भी जकड़ महसूस होती है
शायद मैं दलदल में नहीं, यह दलदल मेरे अंदर है।
शायद मैं दलदल में नहीं, यह दलदल मेरे अंदर है
इस घुटन से भागते-भागते
खुद से ही दूर जा रहा हूँ
"हाँ, मैं ठीक हूँ!" कह-कह कर
एक झूठ की दीवार खड़ी किये जा रहा हूँ
अकेलेपन से डरता हूँ और
अकेले ही धसा जा रहा हूँ
कभी रोया, कभी चिल्लाया, जो बाल खुद ना गिरे उन्हें नोच गिराया
पर सारी चीखें झूठ की दीवार के पीछे दब गयी
हर आंसू की बूँद चोर-बालू में उलझ कर फँस गयी
हस्ते चेहरे पर कोई ध्यान नहीं देता, इसीलिए मुस्कुराये जा रहा हूँ
जाने कैसा दलदल है यह
जिसमे मैं धसा जा रहा हूँ
बीमार नहीं हूँ मैं, तुम दया दिखाना बंद करो
तुम जितना अब करीब आ रहे हो, उतना ही तुमसे दूर जा रहा हूँ
"यह मत सोचो! वह मत देखो!" सब कह जाते है
आँखों पर पट्टी और मन को डोरी से बांधे चला जा रहा हूँ
रात को नींद आती नहीं, और सुबह उठ नहीं पाता
हफ़्तों की थकान  को कन्धों पर लादें जा रहा हूँ
यह बाँध अब टूट जायेगा, यह ढोंग अब फूट जायेगा
भले भांति मैं समझ रहा हूँ
पर अब भी कोई पूछता है "कैसे हो भाई?"
तो "एकदम बढ़िया, आप सुनाओ!" कहे जा रहा हूँ
जाने कैसा दलदल है यह
जिसमे मैं धसा जा रहा हूँ

~ सौरव गोयल